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कंकाल-अध्याय -३२

'वह मेरे बँगले में हैं, घबराने की आवश्यकता नहीं। चलो!' विजय धीरे-धीरे बँगले में आया और एक आरामकुर्सी पर बैठ गया। इतने में चर्च का घण्टा बजा। पादरी ने चलने की उत्सुकता प्रकट की, लतिका ने कहा, 'पिता! बाथम प्रार्थना करने जाएँगे; मुझे आज्ञा हो, तो इस विपन्न मनुष्यों की सहायता करूँ, यह भी तो प्रार्थना से कम नहीं है।' जान ने कुछ न कहकर कुबड़ी उठायी। बाथम उसके साथ-साथ चला। अब लतिका और सरला विजय और घण्टी की सेवा में लगी। सरला ने कहा, 'चाय ले आऊँ, उसे पीने से स्फूर्ति आ जायेगी।' विजय ने कहाँ, 'नहीं धन्यवाद। अब हम लोग चले जा सकते हैं।' 'मेरी सम्मति है कि आज की रात आप लोग इसी बँगले पर बितावें, संभव है कि वे दुष्ट फिर कहीं घात में लगे हों।' लतिका ने कहा। सरला लतिका के इस प्रस्ताव से प्रसन्न होकर घण्टी से बोली, 'क्यों बेटी! तुम्हारी क्या सम्मति है तुम लोगों का घर यहाँ से कितनी दूर है?' कहकर रामदास को कुछ संकेत किया। विजय ने कहा, 'हम लोग परदेशी हैं, यहाँ घर नहीं। अभी यहाँ आये एक सप्ताह से अधिक नहीं हुआ है। आज मैं इनके साथ एक ताँगे पर घूमने निकला। दो-तीन दिन से दो-एक मुसलमान गुण्डे हम लोगों को प्रायः घूम-फिरते देखते थे। मैंने उस पर कुछ ध्यान नहीं दिया था, आज एक ताँगे वाला मेरे कमरे के पास ताँगा रोककर बड़ी देर तक किसी से बातें करता रहा। मैंने देखा, ताँगा अच्छा है। पूछा, किराये पर चलोगे! उसने प्रसन्नता से स्वीकार कर लिया। संध्या हो चली थी। हम लोगों ने घूमने के विचार से चलना निश्चित किया और उस पर जा बैठे।' इतने में रामदास चाय का सामान लेकर आया। विजय ने पीकर कृतज्ञता प्रकट करते हुए फिर कहना आरम्भ किया, 'हम लोग बहुत दूर-दूर घूमकर एक चर्च के पास पहुँचे। इच्छा हुई कि घर लौट चलें, पर उस ताँगे वाले ने कहा-बाबू साहब, यह चर्च अपने ढंग का एक ही है, इसे देख तो लीजिये। हम लोग कुतूहल से प्रेरित होकर इसे देखने के लिए चले। सहसा अँधेरी झाड़ी में से वे ही दोनों गुण्डे निकल आये और एक ने पीछे से मेरे सिर पर डंडा मारा। मैं आकस्मिक चोट से गिर पड़ा। इसके बाद मैं नहीं जानता कि क्या हुआ, फिर जैसे यहाँ पहुँचा, वह सब तो आप लोग जानती हैं।' घण्टी ने कहा, 'मैं यह देखते ही भागी। मुझसे जैसे किसी ने कहा कि ये सब मुझे ताँगे पर बिठाकर ले भागेंगे। आप लोगों की कृपा से हम लोगों की रक्षा हो गयी।' सरला घण्टी का हाथ पकड़कर भीतर ले गयी। उसे कपड़ा बदलने को दिया दूसरी धोती पहनकर जब वह बाहर आयी, तब सरला ने पूछा, 'घण्टी! ये तुम्हारे पति हैं कितने दिन बीते ब्याह हुए?' घण्टी ने सिर नीचा कर लिया। सरला के मुँह का भाव क्षण-भर मे परिवर्तित हो गया, पर वह आज के अतिथियों की अभ्यर्थना में कोई अन्तर नहीं पड़ने देना चाहती थी। वह अपनी कोठरी, जो बँगले से हटकर उसी बाग में थोड़ी दूर पर थी, साफ करने लगी। घण्टी दालान में बैठी हुई थी। सरला ने आकर विजय से पूछा, 'भोजन तो करियेगा, मैं बनाऊँ?' विजय ने कहा, 'आपकी बड़ी कृपा है। मुझे कोई संकोच नहीं।' इधर सरला को बहुत दिनों पर दो अतिथि मिले। दूसरे दिन प्रभात की किरणों ने जब विजय की कोठरी में प्रवेश किया, तब सरला भी विजय को देख रही थी। वह सोच रही थी-यह भी किसी माँ का पुत्र है-अहा! कैसे स्नेह की सम्पति है। दुलार ने यह डाँटा नहीं गया, अब अपने मन का हो गया। विजय की आँख खुली। अभी सिर में पीड़ा थी। उसने तकिये से सिर उठाकर देखा-सरला का वात्सल्यपूर्ण मुख। उसने नमस्कार किया। बाथम वायु सेवन कर लौटा आ रहा था, उसने भी पूछा, 'विजय बाबू, अब पीड़ा तो नहीं है?' 'अब वैसी तो नहीं है, इस कृपा के लिए धन्यवाद।' 'धन्यवाद की आवश्यकता नहीं। हाथ-मुँह धोकर आइये, तो कुछ दिखाऊँगा। आपकी आकृति से प्रकट है कि हृदय में कला-सम्बंधी सुरुचि है।' बाथम ने कहा। 'मैं अभी आता हूँ।' कहता हुआ विजय कोठरी से बाहर चला आया। सरला ने कहा, 'देखा, इसी कोठरी के दूसरे भाग में सब सामान मिलेगा। झटपट चाय के समय में आ जाओ।' विजय उधर गया। पीपल के वृक्ष के नीचे मेज पर एक फूलदान रखा है। उसमें आठ-दस गुलाब के फूल लगे हैं। बाथम, लतिका, घण्टी और विजय बैठे हैं। रामदास चाय ले आया। सब लोगों ने चाय पीकर बातें आरम्भ कीं। विजय और घण्टी के संबंध में प्रश्न हुए और उनका चलता हुआ उत्तर मिला-विजय काशी का एक धनी युवक है और घण्टी उसकी मित्र है। यहाँ दोनों घूमने-फिरने आये हैं। बाथम एक पक्का दुकानदार था। उसने मन में विचारा कि मुझे इससे क्या, सम्भव है कि ये कुछ चित्र खरीद लें, परन्तु लतिका को घण्टी की ओर देखकर आश्चर्य हुआ, उसने पूछा, 'क्या आप लोग हिन्दू हैं?' विजय ने कहा 'इसमें भी कोई सन्देह है?' सरला दूर खड़ी इन लोगों की बातें सुन रही थी। उसको एक प्रकार की प्रसन्नता हुई। बाथम ने कमरे में विक्रय के चित्र और कलापूर्ण सामान सजाये हुए थे। वह कमरा छोटी-सी एक प्रदर्शनी थीं। दो-चार चित्रों पर विजय ने अपनी सम्मति प्रकट की, जिसे सुनकर बाथम बहुत ही प्रसन्न हुआ। उसने विजय से कहा, 'आप तो सचमुच इस कला के मर्मज्ञ हैं, मेरा अनुमान ठीक ही था।'

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